“आज मेरे घर चलेंगे सर!”, थानेंद्र ने घोषित कर
दिया. “नहीं सर. आज मेरे घर.”, नीलकंठ बोला. “नहीं सर. मैने पहले बोला था”,
थानेंद्र गुस्सेसे बोला. “हां. उसने पहले बोला था. आज मै थानेंद्र के घर जाऊंगा”, थानेंद्र
का लाल चेहरा देख मैने तुरंत निर्णय बता दिया.
किशन, नीलकंठ, थानेंद्र यह सब मेरे पांचवी कक्षा के बच्चे है. छत्तीसगढ़ के कबीरधाम जिले में राजानवागाँव नाम के एक छोटेसे गाव में सरकारी शाला में पढ़ते है. मै उन्हें पिछले दो हफ्तों से गणित पढ़ा रहा हूँ.
कीचड़ भरे रस्ते से छोटी छोटी गलियाँ पार कर हम थानेंद्र के घर पहुंचे. घर को ताला देख वह नाराज हो गया उतनेमे उधरसे उसकी माँ खेत से आ गयी. “खुर्सी नहीं है सर. चटाई पे बैठेंगे?”, उसकी माँ ने पूंछा. हम नीचे बैठ गये. तब तक पूरे ‘सतनामी’ पारे में बात पहुँच चुकी थी. शाला से मास्टरजी आयें है. ये भीड़ लग गयी. सतनामी समाज अनुसूचित जाती (SC) के अन्दर आता है. लेकिन प्यार की क्या कोई जाती होती है क्या?
“सर, खेत देखने चलेंगे क्या?”, बच्चों ने पूंछा. १०-१५ बच्चे मुझे लेकर खेत दिखाने चल पड़े. “सर यह देखिये. यह मेरा खेत.”, “सर वह वाला, जिसमे पीले रंग के पत्ते लगे है, सर वह अमित का खेत.”, “सर मेरे वाला उसके पीछे है.”, “सर अपना मनमोहन है ना उसका वह खेत. अभी कटाई हुई है. उसकी माँ अभी मरी सर.” बच्चें बिना रुके बताये जा रहे थे. “सर, इसको देखो. चना लगा है. हम इसके पत्तों की भाजी खातें है. आप खाते है सर चने के पत्ते?” बच्चों के लगातार मुझसे सवाल चालू थे.
“सर यह है टी वेल, इससे पानी निकलता है.” मै कुछ समझा नहीं. थोड़ी देर बात पता चला की बच्चें ट्यूबवेल की बात कर रहे थे. एक तो बच्चें छत्तीसगढ़ी में बोल रहे थे. और दूसरा, एक साथ ४-५ लोग इकठ्ठा बोलते. लेकिन बड़ा मजा आ रहा था. गरम धूप जा कर अब हवा में ठण्ड बढ़ रही थी. जितनी दूर नजर पहुंची उतने पीले, हरे खेत ही खेत नजर आ रहे थे. पूरब में नीला सफ़ेद आकाश. और पश्चिम, केसरिया चादर ओढ़ रहा था. चाँद निकल चुका था. बड़ा सुहाना चित्र था.
“सर यहाँ फोटो खीचो ना.”, “सर, मेरा अकेले का लो.”, “सर मेरा मेरी बेहन के साथ.” फोटो का मानो भूत सवार था बच्चों पर.
| गन्ने के खेत में! |
“सर कोई जादू दिखाओ ना जैसे आज कक्षा में दिखाए थे.”, एक बच्चे ने बोला. तीस छोटे-बड़े बच्चों ने मुझे घेर रखा था. मैंने मेरा सायंस किट खोला. बोतल और गुब्बारे से दो प्रयोग दिखाए. बच्चों ने ताली मारी. मैने कहा, “जादू वादू कुछ नहीं होता. सब विज्ञान का कमाल है.” “और एक सर. प्लीज और एक.” इसबार मैंने कांच की बोतल निकाली. लेसर खोला. और प्रकाश को मोड़ने वाला ‘जादू’ दिखाया. इतना मोड़ दिया कि पूरा प्रकाश उल्टा बोतल के अन्दर मूढ़ गया. बच्चें विस्मित रह गये. जब बड़े होंगे तब पढेंगे Total Internal Reflection को. उनकी उत्सुकता बढ़ गयी थी. ‘क्या होता अगर हम बच्चों को शाला में हमेशा ऐसे सम्मोहित करने में सफल होते!’, मैने खुदसे कहा.
| खेत में नाच करते हुए मनमोहन, थानेंद्र, रुपेश और ओमान (R तो L) |
चाँदनीं ने सतनामी पारे की सुन्दरता को कई गुना बढ़ा दिया था. गुरुद्वारा में मत्था टेकते हुए हम मेरी गाड़ी के पास पहुंचे. ठंड बढ़ने लग गयी थी. अब और देरी करना मुनासिब नहीं था. बच्चों ने नीचे झुककर पैर छुए. मैंने बड़ी मुश्किल से गाडी शुरू कर दी. “बाय सर. कल फिर आना. बैट-बॉल खेलेंगे.”, बच्चे भी घर जाने का नाम नहीं ले रहे थे.
बस्ती पीछे छूट गयी. गाँव के धीमी रोशनाई की जगह अब अँधेरे ने ले ली. शहर की तरफ ले जाने वाले सुनसान रास्तें पर अब सिर्फ दो साथी चल रहे थे, एक दुसरे से द्वन्द कर रहे थे – मै और मेरा भारी मन – एक, जो शहर की तरफ जा रहा था, तो दूसरा जो गाँव के प्यार की तरफ.
आकश, तुम्हारे अनुभव पढ़कर बहुत आनंद आया। हिंदी लिखनेका प्रयास भी काफ़ी अच्छा था।
ReplyDeleteDada rao jamat ks tula hey sagal..??
ReplyDelete